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  • २०८१ चैत्र २, शनिबार

मुतेबा स्हे पोला...


तिल्माला स्हे खाराङ्बा मुबा 
थेह्राङ्बा तिनि आरे । 
न्हा ग्योइ मुबा चुह्राङ्बा,
न्हा ऐना,
न्हा क्रिपजुगु,
न्हा नाम ताइबा,
न्हा वनस्पति, 
न्हा च्योबा,
न्हा थुर्बा,
न्हा उदासी,
न्हा ब्रान्बा,
न्हा पश्चतापला मिख्लि,
न्हा आत्मालोचनाला छिगजुगु ।

टैगोर नोइ थेह्राङ्बा आरेमुबा, 
न्हा जीवनान्द दास, 
न्हा मुक्तिबोध, 
न्हा थेन्ना दुइला दोपदो, 
न्हा हुसैनला ताजुगु, 
न्हा किशोरी अमोनकरसे कोबा
राग बिलावलला क्लासिक थेन रोमान्टिक
काइला होङ्बा ।

ओम बुर्जुवा जनवादमि मुनोन आरेमुबा
ङ्हाच्छाला ह्राङ्बा
ओम फाँसीवाद नोन आरेमुबा
१९२० थेन १९३० ला दशकला ह्राङ्बा । 
ङ्हाच्छाला ह्राङ्बान छोर्बा स्हेजुगु
खाइमाइ आता थेह्राङ्बान (हुबहु) ङ्हाच्छाला ह्राङ्बा । 
चुरि ताम चेगाइ थेन व्हाइखाला बारेरि
ओम विद्रोहला बारेरि 
सोंचला तोसोला फिरि नोन लागू ताला ।

मुतेबा खेबाः स्हेदा 
छार लिरि गोतोला । 
मुतेबा सम्बन्धदा
रेमरेम परिभाषित लातोला । 
म्हिदा ङोसेबारि सामाजिक सम्बन्धरि खाबा
ङोन्छाङ्ला पोबाजुगुदा गोतोला ।
स्हेजुगुदा गोबारि 
थेजा खाबा पोबादा सेतोला । 
ओम थे पर्यावरणरि खाबा 
पोबादा नोन गोतोला
खानाङ थे बास चिबा लाला । 
चुह्राङ्लासि ह्याङ्ला ङोन्छाङ दोसि
खासि दाराप्काला । 
चुह्राङ्लासि ह्याङ्से केवाला दोखाङ्ला 
छार खानीजुगु म्हाइला । 
ओम आशाला नाङ्साल
सातान लुङ्ना लाथान्बाला लागि
छार छार इन्धनला आविष्कार लाला । 
खाइमाइ खाजिबाइ तिबा थेनोनग्याम आता
खानाङग्याम ङ्हाच्छाला रेम नुप्बा मुबा । 

हिन्दीग्याम दोःबा : यकिना अगाध

हिन्दीला मुल पाठ :

हर शै बदलती है... 
कत्यायनी

कल चीजें जैसी थीं
वैसी आज नहीं थीं। 
न झील थी वैसी
न दर्पण
न परछाइयाँ
न बारिश
न वनस्पतियाँ
न चुम्बन
न स्पर्श
न उदासी
न इन्तजार
न पश्चाताप के आँसू
न आत्मालोचना के शब्द। 
टैगोर भी वैसे न थे
न जीवनानन्द दास
न मुक्तिबोध
न उनके समय का अँधेरा
न हुसैन के घोडे
न किशोरी अमोनकर द्वारा 
राग बिलावल के गायन में 
क्लासिक और रोमैंटिक अन्तध्र्वनियों की
वह बुनावट। 
और बुर्जुआ जनवाद तो एकदम न था
पहले जैसा
और फासिज्म भी नहीं था
१९२० और १९३० के दशकों जैसा। 
पहले जैसी लगती हुई चीजें
कभी नहीं होतीं हूबहू पहले जैसी। 
यह बात प्यार और कविता के बारे में
और विद्रोह के बारे में
सोचने के तरीकों पर भी लागू होती है। 
हर पुरानी चीज से नयी जान–पहचान
करनी पडती है। 
हर रिश्ते को बार–बार फिर से
परिभाषित करना पडता है। 
लोगों को जानना सामाजिक सम्बन्धों के
समुच्चयों में आये बदलावों को जानना है। 
चीजों को जानना
उनमें आये बदलावों को जानना है
और उस पर्यावरण में आये
बदलावों को भी जानना है
जिनमें वे निवास करती हैं
या हमारे सामने फिर से
आ उपस्थित होती हैं। 
इसतरह हम जीवन–द्रव्य के
नये खदानों की खोज करते हैं
और उम्मीदों की बाती को 
लगातार जलाये रखने के लिए  
नये–नये ईंधनों का आविष्कार करते हैं। 
कभी कोई शुरुआत वहीं से नहीं होती
जहाँ से पिछली बार हुई थी।
 



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